वाखरी वह गाँव है जहाँ मुझे सरेराह विट्ठल रुक्मणी का जोड़ा मिल गया था। अब आप इस जोड़े की उम्र न पूछिएगा। सुनते हैं कि दुनिया में एक युग का नाम द्वापर रहा है। उस युग में पहली बार दुनिया ने विट्ठल रुक्मणी को देखा था। मैंने उस जोड़े को वाखरी गाँव में देखा है। यह गाँव फलटन तालुका के 125 गाँवों में से एक है। इस गाँव में कभी विट्ठल और रुक्मणी चलते चले आए थे और फिर यहीं आकर बस गए। अपना राजपाट दरकिनार करके वे महाराष्ट्र के किसान हो गए थे।
यकीन मानिए मेहनतकश यह दम्पत्ति रोटी -पानी के जुगाड़ में लगा रहता है। इन्हें देख कर वाखरी गाँव का हौसला बढ़ता है। जोश ओ ख़रोश से यह मेहनती गाँव जल की तंगी की परवाह न करते हुए भी पठारी खेतों को हरा-भरा कर देता है। गन्ना यहाँ हरा होकर फलता है। गन्ना उत्पादन में महाराष्ट्र का देश में जो दूसरा स्थान है, उसमें वाखरी गाँव का भी हाथ है।
इस गाँव की आबादी ढाई हज़ार और घर गिन कर पाँच सौ के आस-पास हैं। सरेराह मुझे जहाँ विट्ठल रुक्मणी का प्रस्तर जोड़ा मिला था...उनसे दो हाथ की दूरी पर पठारी पत्थर से बना एक घर था। वह घर जिस पर लौह धातु से बना मयूर सजा था। वह मयूर ऐसे लग रहा था जैसे मोर के सिर माथे सजी कलगी हो। सन् 71 की याद में बना वह घर था। उस घर से दस कदम आगे चल कर एक सरकारी पाठशाला है। इन दिनों वह तालाबंद है। उस पाठशाला के आगे लंबा -चौड़ा एक मैदान है। मैदान के ठीक सामने गाँव की मुख्य सड़क चलती है।
चलती उस सड़क से जुड़ा भैरव का मंदिर है। वह मंदिर पुराना ज़रूर है पर उस पर रंग रोगन नया हो चुका है। भैरव मंदिर की भीतरी छत और खंभे सागवान लकड़ी से बने हैं। मंदिर की भीतरी दीवार पर मैंने लक्ष्मी बाई, भीमराव अंबेदकर,जवाहर लाल नेहरु और छत्रपति शिवाजी महाराज के रंग भरे चित्र देखे। उनके वहाँ होने से मंदिर को नया अर्थ मिल रहा था। उस मंदिर के बाहर पत्थर की एक दीपशिखा ऐसे स्थापित की हुई है जैसे वह मील का पत्थर हो।
मंदिर को छाँव देता इमली का घना वृक्ष भी वहाँ था। अनगिन भुजाओं से उसने वाखरी के आकाश को उठा रखा था। वह आकाश जिस पर सूरज- चाँद की जादूगरी का रंग चढ़ जाता है। खट्टी-मीठी इमली के स्वाद वाला वह वृक्ष मुझे हाथ देकर पास बुलाता था। बातूनी वह पेड़ सिर्फ़ अपनी ही नहीं, मंदिर की जड़ों की भी राज़दार बात करना चाहता था। उसकी बातों में न आकर मैं इमलियों को खड़ी देखती रह गई। उन्हें देखते-देखते मेरी नज़र मंदिर के बाहर लगी पत्थर की बैंच पर जा टिकी थी। उन बैंच के आस -पास लोहे का एक रैक था। जिसमें अखबार और पत्रिकाएँ रखने की जगह बनी हुई थी। गाँव की वह Open Library थी।
गाँव के निवासी हों या फिर कोई राहगीर जिसे पढ़ने की तलब लगे,वह Open Library की ओर रुख़ कर सकता है। यह अलग बात है कि कोरोना के चलते जीवन पहले जैसी रफ़्तार से इन दिनों नहीं चल रहा तो अखबार और किताबें वहाँ नहीं थीं पर फिर भी गाँव के उस खुल्लम खुल्ला वाचनालय को देख कर मुझे ख्याल आया कि ऐसा ख्याल किसी शहर, महानगर या मेट्रो सिटी को क्यों नहीं आता जो इस गाँव को आया है, वह गाँव जिसका नाम वाखरी है।
- रुचि भल्ला
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